कर्मयोग
कर्मयोग समझने से पहले हम कर्म को समझते है की यह क्या है ? कर्म का "अर्थ कार्य या क्रिया करने" से है। हमारे द्वारा किया गया काम या क्रिया का परिणाम को कर्म कहते है।श्री कृष्ण भगवान ने गीता में (३ /५) कर्म के बारे में बताया है :
कोई भी बिना कर्म किये क्षणभर भी नहीं रह सकता है। दरअसल सभी प्राणी भौतिक प्रकृति ( तीनो गुणों ) से उत्पन हुए अपने गुणों के आधार पर कर्म करने को विवश होता है। प्रकृति उससे कर्म करवा ही लेती है। (तीनो गुणों - सत्त्व , तम और रज। इन तीनो से ही मन , बुद्धि , अहंकार श्रोत्रादि दस इन्द्रियों और शब्दादि पाँच विषय)
यह कर्म के दो प्रकार है।
(१) सकाम कर्म : स्वम के लाभ के किया गए कर्म (२) निष्काम कर्म : स्वम से परे व निस्वार्थ किया गए कर्म
मनुष्य का कर्म करने का अधिकार है। उसके फल या परिणाम में नहीं। फल उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। फल में आसक्ति भी न हो और यह भी नहीं की कर्म करना छोड़ दो। अतः कर्म तो करना ही होगा।
कर्मयोग क्या है ?
मनुष्य अपने आप को आत्मरूप में जानकर साक्षी भाव में होकर कर्म करता है तो यह कर्मयोग होता है। जब हमें यह पता चल जाता है यह शरीर में नहीं हूं मेरी भीतर आत्म तत्व है। वह ईश्वर ही है। यह यह शरीर रूपी यंत्र है जिसके द्वारा कुछ कार्य करवाने के लिए चुना गया है। इस शरीर के द्वारा जितने भी कर्म होंगे वह मेरे द्वारा नहीं किए जाएंगे। वह आत्मा इस शरीर के द्वारा सभी कर्म करेगा। वह आत्म तत्व कर्म मुक्ति है वह कर्ता नहीं है। ऐसा जानकर कर्म करने वाला मनुष्य कर्मयोगी है। ऐसे में मनुष्य सभी कर्म करते हुए भी कर्म मुक्त होगा। और वह कर्म की फलों से भी मुक्त हो जाता है।