योगवाशिष्ठ ग्रन्थ
योगवाशिष्ठ एक आध्यतमिक ग्रन्थ है जो बहुत उच्च कोटि का ग्रन्थ है। इसमें वशिष्ठ जी के द्वारा प्रभु श्री रामचंद्र जी को दिया गये उपदेशों का अत्यंत मनोहर वर्णन है। इनके दार्शनिक सिद्धांत बहुत शुक्ष्म और गहरे है। अद्वैत वेदांत के अनेक पंडितो ने इस सिद्धांतो का बहुत ही प्रतिपादन किया है।
योग शब्द का अर्थ
योगावशिष्ठ में योग शब्द का अर्थ है, संसार सागर से पार होना की युक्ति।
श्रीकृष्ण में गीता (२/४८) में हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर। क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार चित की सभी वृत्तियों का पूर्ण निरोध होना ही योग है।
योग का आदर्श
योग द्वारा मनुष्य अपने वास्तविक सवरूप सच्चिदानन्द का अनुभव कर लेता है। योग का ध्यये बहुतुरीय नामक परम आत्मा में स्थिति है इसमें जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति किसी का भी भान न हो और न इसमें आगामी अनुभव का बीज ही रहे व जिसमे परम आनंद का सदैव अनुभव होता रहे।
योग की तीन रीतियाँ
योग साधन की तीन रीतियाँ हैं (१) एक तत्त्व में दृढ़ भावना (२) मन का शांति (३) प्राणों के स्पन्दन का निरोध। इन तीनों में से किसी एक की साधना से तीनों की सिध्दि हो जाती है। किसी को ज्ञान का अभ्यास, किसी को प्राणों का निरोध और किसी हो मन को शांत करना सरल होता है। प्राणों के निरोध की अपेक्षा मन को शांत करना या एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करना अधिक सरल है।
एक तत्त्व का अभ्यास
(१) ब्रह्म भावना
(२) अभाव भावना
(३) केवली भावना