योग साधना
मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुसार चार प्रकार के होते है कर्म प्रधान , भक्ति प्रधान , योग प्रधान , बुद्धि प्रधान। वह अपनी इन प्रकृति के अनुसार परमतत्त्व की प्राप्ति के लिए मार्ग चुनता है। इन चारो प्रकार की प्रकृति के मनुष्य के लिए चार योग बताये गये है जो क्रमशः कर्मयोग , भक्तियोग , ज्ञानयोग , राजयोग है । यह चारो मार्ग में परस्पर कोई विरोधभाव नहीं है। कुछ लोग ज्ञान योग और भक्ति योग में विरोधाभाव बताते है। परतुं ऐसा कुछ नहीं है, जहाँ पूर्णज्ञान है वहाँ पूर्ण प्रेम है और जहाँ पूर्ण प्रेम वहाँ पूर्ण ज्ञान।भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इनसभी योग और उनके महत्त्व बताया था।
"भगवतगीता" में वर्णित कर्मयोग से मल का नाश होता हैं। चित्त की शुद्धि (मन की प्रावित्रता ) होती है। भक्तियोग से विक्षेप (मन की व्याकुलता) नाश होता है। ज्ञानयोग से अज्ञानता के आवरण को हटाकर ज्ञान (बुद्धि ) की प्राप्ति होती है। राजयोग द्वारा मन पर विजय प्राप्त मन को एकाग्र करना होता है। प्रकृति के समस्त व्यापारों पर शासन कर सकता हैं एवं भगवान (ध्यान की अंतिम अवस्था ) की प्राप्ति कर सकता है। योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने इन समस्त योगों का विस्तृत बर्णन क्या है।
भगवान कृष्ण गीता में अर्जुन को बताया की मनुष्य योगियों के साथ योगी और भोगियों के साथ भोगी बन जाता है। योग के माध्यम से परम शांति व मन की स्थिरता को प्राप्त कर सकता है। भोगी कभी तृप्ति नहीं हो सकती। सभी विकारों के नाश के लिए योग साधना उतनी आवश्यक है जितनी स्वच्छ प्राणवायु का होना।
इस भागदौड़ भरे जीवन में मनुष्य को चाहिए की स्वस्थ जीवन व स्वच्छ मन की प्राप्ति के लिये योग का नियमित अभ्यास करे। उपरोक्त बर्णित चारो योग का अभ्यास करे।
आरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम्॥
व्यायाम से स्वास्थ्य, लम्बी आयु, बल और सुख की प्राप्ति होती है। निरोगी होना परम भाग्य है और स्वास्थ्य से अन्य सभी कार्य सिद्ध होते हैं।