योग के जनक
योग विधि की उत्पत्ति वैदिक काल से पहले की है और इसके जन्मदाता हिरण्यगर्भ जी थे।जिसका उल्लेख में ऋग्वेद (१०/१२१/१ ) एवं श्रीमद्भागवत (५ /१९ /१३ ) में मिलता है। हिरण्यगर्भ जी ने ही वेदों से पहले इस योग विद्या को प्रकट किया।
योग का जन्म
सृष्टि के प्रारंभिक काल में हिरण्यगर्भ जी से अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा ऋषियों ने योग शिक्षा को प्राप्त कर अपने शिष्य महर्षि पतंजलि जी को प्रदान की। फिर महर्षि पतंजलि जी ने ‘योग दर्शन‘ नामक ग्रन्थ की रचना की।
योग का अर्थ
योग का शाब्दिक अर्थ ‘जोड़ना’ है। अन्य अर्थ ‘उपाय’ भी होता है। महर्षि पतंजलि जी के मतानुसार चित की सम्पूर्ण वृत्तियों को रोक देना ही योग है। अपने चित को परमात्मा में लगा देना योग है।योग का अर्थ कोई यह ना समझे की यह केवल योगियों के लिए है। इसका यह अर्थ है की जो कोई संसार में सदाचर में रहकर सफल जीवन जीना कहते, वही योगी है। योग में केवल शिष्टाचार ही नहीं अपितु आहार-विहार का नियम भी है। ऐसा ना सोचें की योग वैराग्यों के लिए ही है। यह गृहस्थ और योगी सभी के लिए है। भगवान कृष्ण एक श्रेष्ठ उदाहरण है। वह गृहस्थ में रहते हुए भी पूर्ण योगी है।
योग का इतिहास
योग का इतिहास बहुत पुराना है। यह वैदिक काल के भी पहले का है। वेदों में योग प्रणालियों का वर्णन मिलता है। योग का मुख्यतः सम्बन्ध पतंजलि महर्षि जी के 'योग सूत्र' से है। यह योग सूत्र 'अष्टांग योग' प्रणाली पर आधारित है। जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि शामिल हैं।
योग का महत्त्व
योग के द्वारा चित की एकाग्रता प्राप्त होती है। एकाग्र चित से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान से जीवात्मा की मुक्ति होती है।